पढ़ाई छूटी, मगर पढ़ने का चाहत बनी रही – वेणु गोपाल
कवि वेणु गोपाल से मुकेश प्रत्यूष की बातचीत का यह अंश त्रैमासिक पत्रिका ‘आलोचना’ के अप्रैल-जून 2008 में प्रकाशित हुआ। कवि वेणु गोपाल एक सवाल के जवाब में कहते हैं, “मेरा मूल निवास राजस्थान है। लेकिन मेरा कोई ताल्लुक राजस्थान से नहीं है। मुझे उस राजस्थानी का पता ही नहीं जो वहां के लोग बोलते हैं। मेरी राजस्थानी में हैदराबादी और हिंदी सबकुछ मिल गया है। मेरे पिताजी जब छोटे थे तो मेरे दादाजी राजस्थान से हैदराबाद आ गए थे। “
बचपन में छूटी पढ़ाई
अपनी ज़िंदगी के बारे में बताते हुए वेणु गोपाल बताते हैं, “देखिए, बचपन से मैं आवारा था। चाचाजी पैसे वाले थे। वे मुझे अपने व्यवसाय का उत्तराधिकारी बनाने के लिए भिड़े रहते थे। जब छठीं या सातवीं क्लास में था तो मुझे स्कूल से निकाल लिया गया और दूकान पर ले जाकर खाता-बही लिखना सिखाया जाने लगा। यह सब सीखते हुए मेरे मन में एक बेचैनी लगातार बनी रहती थी जो तब समझ में नहीं आती थी। बेचैनी के कारण मैं घर से भाग जाया करता था।
शुरु में शहर में ही रहता था। दो-चार रातें कहीं गुजार लीं। कभी पुलिस पकड़कर ले गई। फिर लौटता। मुझे लगता कि मैं बार-बार घर से भागता इसलिए था कि लौटने का रास्ता खुला रहता था। बेचैन मैं तब भी रहता था। मेरी बेचैनी धीरे-धीरे एक थ्रिल में बदलने लगी। पहले घर से भागने में मजा मिलता था। उसके बाद चोरी करने में मिलने लगा। पड़ोसी जागरूक रहने लगे। मैं थ्रिल के कारण भाग जाता था, फिर घर पर आ जाता था।
बिना फीस के मिला दाखिला
लौटने पर मैंने जबरदस्ती अपना नाम जाकर स्कूल में लिखना लिया बिना फीस के। उस समय के शिक्षक भी अद्भुत रहे होंगे। परीक्षा की फीस तक मैं दे नहीं पाता था क्योंकि घर वाले विरोध में थे। जब मैंने फिर से पढ़ना शुरू किया तो मेरे खाने-पीने तक पर अंकुश लगा दिया लेकिन ज्यों-ज्यों विरोध बढ़ता गया त्यों-त्यों मेरी जिद बढ़ती गई। पिताजी ने हुक्म जारी किया कि इसका खाना बन्द कर दिया जाए तो इसकी अक्ल ठिकाने आ जाएगी।
पिटता भी था मैं। सुबह उनके उठने के पहले मैं पिटने के डर से मैं घर से भाग जाता और आठ बजे तक रात तक लायब्रेरी में बैठा पढ़ता रहता, जो भी मिल जाए उसे पढ़ता था। क्यों पढ़ रहे हैं, क्या पढ़ रहे हैं कुछ पता नहीं बस पढ़ रहे हैं। रात में माँ थाली छुपाकर रखती थी। आज भी कोई मुझसे पूछता है कि इतने विविध विषयों की जानकारी कहाँ से है तो मैं कहता हूँ कि यह तब का पढ़ा हुआ है।
हिन्दी के अध्यापक मुर्गा बनाते थे
स्कूल चला जाता था। हिन्दी में मैं हमेशा फेल होता। हिन्दी में अपने क्लास का वर्स्ट स्टूडेंट था। छठीं से नवमीं तक तो हिंदी के अध्यापक मुझे मुर्गा बनाकर रखते थे क्लास में। वे मुझे पीटते हुए कहते थे, जिस दिन तुम हिन्दी का एक वाक्य सही लिख लोगे मैं अपना नाक कटा लूँगा। मैंने अपनी संस्मरणों की किताब में लिखा है, वो कहाँ हैं मुझे जानने की इच्छा नहीं है। उनको अपनी नाक भले ही न प्यारी हो मुझे उनकी नाक प्यारी है। और जब लिखना शुरू किया तो चोरी, घर से भागने की आदत छूटी। क्रिएटिविटि में वही थ्रिल मिलने लगा जो पहले चोरी करने या घर से भागने से मिलता था।”
Source:https://educationmirror.org/2016/09/22/there-is-no-value-in-truth-without-experience/
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