Sunday, 18 December 2016

कैसे करें जीवंत पुस्तकालय का निर्माण?

कैसे करें जीवंत पुस्तकालय का निर्माण?

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बाल साहित्यकार गुरुवचन सिंह जीने कहा नए सृजन के लिए जोखिम उठाने की जरूरत है।
अपनी बात की शुरुआत करते हुए बाल साहित्यकार गुरुवचन सिंह जी कहते हैं कि लायब्रेरी एजुकेटर का काम कोई हल्का-फुल्का काम नहीं है। इस काम को केवल आपने इसलिए भी नहीं सुना है क्योंकि आपको इस काम में मजा आता है। अच्छा लगने का विषय नहीं है। यह एक बड़ी सामाजिक जिम्मेदारी का विषय है कि आपको बच्चों और पाठकों के साथ कैसे संवाद स्थापित करना है।
अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए वे कहते हैं, “आमतौर पर शिक्षा क्षेत्र में बच्चों के साथ काम करने को बहुत हल्के में लिया जाता है। लोग कहते हैं कि हमें बच्चों को पढ़ाना अच्छा लगता है, इसलिए मैं बच्चों को पढ़ाना चाहता हूँ। क्या आप किसी ऐसे डॉक्टर से अपना इलाज कराएंगे, जिसको इलाज करने में बहुत मजा आता है। यह जिम्मेदारी आपसे ज्यादा प्रोफेशनल तरीके से अपने काम को करने की तैयारी माँगती है।”

जीवंत पुस्तकालय के मायने

जीवंत पुस्तकालय के विचार पर संवाद करते हुए वे कहते हैं, “जीवंत पुस्तकालय को आप कैसे देखते हैं? पाठक बनने का मतलब क्या है? पाठक बनने की प्रक्रिया क्या है? पढ़ना क्या है? सीखना क्या है? किताबों से दोस्ती का मतलब क्या है? दोस्ती का मतलब क्या है? आप किताबों के बारे में जाने, उनके अच्छे-बुरे पक्ष को जाने। पुस्तकालय अगर उबाऊ है तो सारी तैयारी का कोई मतलब नहीं है।”
“जीवंतता का लायब्रेरी एजुकेटर के साथ क्या रिश्ता है जो उसे जीवंत बनाती है। लायब्रेरी का समाज के साथ क्या रिश्ता है जो उसे जीवंत बनाती हैं। इन सारी बातों से आप रूबरू हुए। यानि एक ऐसा पुस्तकालय जहाँ बच्चों के रुचि की किताबें हैं। वहां ऐसी किताबें हैं जहां बच्चों को विभिन्न तरह की सामग्री मौजूद होती है और माहौल बच्चों के लिए अनुकूल होता है।”
अपनी बात को स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा, “शिक्षा की बात हो या लायब्रेरी की रूटीन चीज़ों के तीन आधार होते हैं। पहला तो है आदत, परंपरा और सत्ता से। जैसे परंपरा चली आ रही है कि लायब्रेरियन किताबों के लेन-देन काम बड़े यांत्रिक ढंग से पूरा करता है।  हमें ऐसी मान्यताओं को पहचानना है जो हमारी सामाजिक, सांस्कृतिक जड़ों में गहरी पैठी मान्यताएं हैं, हमें सबसे पहले उन पर सवाल खड़े करने हैं।”
“जैसे साहित्य की भाषा सरल होनी चाहिए। कहानी सरल होनी चाहिए बच्चों के लिए। सरल कहानी का क्या मतलब है? सरल कहानी का क्या अर्थ है। बग़ैर बच्चा बने, बच्चों को कहानी नहीं सुना सकते। अगर हम विचार की गहराई में उतरेंगे तो पता चलेगा कि कहानी सुनाने के लिए बच्चा बनने के लिए जरूरी नहीं है। कहानी सुनाने के लिए कहानी का सरल होना भी जरूरी नहीं है।”

मान्यताओं पर चर्चा करें

शिक्षा या पुस्तकालय के क्षेत्र में व्याप्त मान्यताओं से सजग रहने का सुझाव देते हुए वे कहते हैं, “कहानी सुनाने के बारे में लोगों की मान्यता है कि कोई भी कहानी सुनायी जा सकती है। ऐसी कहानियां सुनाना जिससे बच्चों को संदेश मिलते हों। एक और मान्यता है कि बच्चों को रंगीन चित्रों वाली किताबें बहुत पसंद है। बहुत सी किताबें ऐसी हैं जिनके चित्र स्वेत-श्याम हैं मगर वे बच्चों को काफी पसंद है।
ऐसी गहरी मान्यताओं को समझने और पहचानने की जरूरत है ताकि हम उनको पोषित करने वाली जड़ों को रेखांकित कर सकें और उसमें बदलाव कर सकें। यह एक रिफलेक्टिव प्रेक्टिशनर या चिंतनशील और विचारशील लायब्रेरी एजुकेटर बनने का तरीका है। यह एक पूरी यात्रा है। जिसमें आप सतत आगे बढ़ते रहते हैं। किसी को विचारशील बनाने का रेडीमेड तरीका नहीं है।”

जोखिम लेना है जरूरी

नए सृजन के लिए जोखिम जरूरी है। इस बात को रेखांकित करते हुए उन्होंने कहा, “जब आप दस किताबें पढ़ेंगे तो तीन किताबें ऐसी छांट पाएंगे जो अनुमान लगाने के कौशल पर काम करने के लिए काफी उपयोगी हैं। अनुमान लगाने का कौशल पढ़ने की कुंजी है। किसी कक्षा में बच्चों के साथ कहानी सुनाने वाली गतिविधि के दौरान देखें कि क्या सारे बच्चों की भागीदारी हो रही है। अगर किसी गतिविधि को कर रहे हैं।”
“अगर आप एक बार असफल होते हैं तो घबराने की जरूरत नहीं है। दूसरा प्रयास करें। तीसरा प्रयास करें। अपनी असफलताओं से सीख लें और आगे बढ़ें। पढ़ी-पढ़ाई गतिविधियों को करने के साथ अपने ज्ञान, समझ और अनुभवों से नई गतिविधियों का भी सृजन करें। जो भी आपने जाना-समझा है, उससे आगे बढ़ने की कोशिश जारी रखें। आपने जो अपने अनुभवों से सीखा है वो कभी डिलीट नहीं होता है। लगातार खुद को सामाजिक रूप से जागरूक रख पाना भी बेहद जरूरी है।”

बाल साहित्य का झगड़ा पाठ्यपुस्तकों से है

बाल साहित्य और पाठ्यपुस्तकों के द्वंद को सामने रखते हुए उन्होंने कहा, “चूंकि जिस प्रक्रिया में हम शामिल हैं वह बच्चों के अस्तित्व और अस्मिता के निर्माण की प्रक्रिया है। बाल साहित्य का सबसे बड़ा झगड़ा और द्वंद बाल साहित्य के साथ है। पाठ्यपुस्तक होने से कोई चीज़ खराब नहीं हो जाती है। जैसे लोग कहते हैं कि अच्छा बाल साहित्य वो है जो पाठ्यपुस्तक नहीं है। पाठ्यपुस्तक होने से कोई चीज़ क्यों खराब हो जाती है, इसको समझने की जरूरत है। पाठ्यपुस्तकों का विषयों में बंटना और ज्ञान को विषयों में बांटकर देखने की जो व्यवस्था है। इस बंटाव में तारतम्य का अभाव दिखायी देता है। महत्वपूर्ण बात ये है कि बतौर लायब्रेरी एजुकेटर हमारे सामने चुनौतियों क्या हैं, इसे समझने की जरूरत है।”

पढ़ने के संकट का समाधान क्या है?

अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए गुरुवचन सिंह जी ने कहा, “एनसीएफ-2005 कहता है, “आज जब पूरे देश में सूचना के भार से दबे बच्चों की पुकार सुनी जा रही है और पाठ सहगामी क्रियाओं को शिक्षा की धारा में लाने की कोशिशें लगातार चल रही हैं देश में बाल साहित्य की भूमिका बहुत ज्यादा बढ़ जाती है।” यशपाल कमेटी ने काफी पहले कह दिया था कि बच्चों को सूचनाओं के भार से बचाने के लिए लायब्रेरी और बाल साहित्य को महत्व देने की जरूरत है।
बाल साहित्य की शैक्षिक भूमिका को समसामयिक संदर्भों में समझने की जरूरत है। वर्तमान में शिक्षा क्षेत्र के दो बड़े संकट हैं, जिसने बाल साहित्य की भूमिका को और बढ़ा दिया है। पहला है पढ़ने का संकट और दूसरा ज्ञान के दबाव का संकट। बच्चे को स्वतंत्र पाठक, समर्थ पाठक या समालोचक पाठक बनाने की यात्रा बाल साहित्य की पटरियों से होकर गुजरती है। भाषा शिक्षण की पारंपरिक और रूढ़ विधियों में भी बदलाव की जरूरत है।”
(उपरोक्त विचार बाल साहित्यकार गुरूवचन सिंह जी ने सिरोही में लायब्रेरी एजुकेटर्स से संवाद करते हुए कहीं।)
Source:https://educationmirror.org/2016/12/02/what-is-the-role-of-library-educator-in-india/

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