यदि पाठशाला न होती तो…!!
गूगल सर्च में कोई खोज रहा था, “यदि पाठशाला न होती?” इससे पता चलता है कि लोगों के दिमाग में ऐसे विचार भी आते हैं, जिनका रिश्ता ‘स्कूल विहीन दुनिया’ से है।
अगर स्कूल न होते तो क्या होता? इस सवाल पर पहली प्रतिक्रिया मिलती है, “पढ़ाई कैसे होती?” इस जवाब से जाहिर है कि हम ऐसे समाज की कल्पना भी नहीं कर पाते, जिसमें स्कूल न हों। जॉन डिवी ने इसके बारे में लिखा है कि स्कूल समाज की आवश्यकता है।
बच्चों की मौज होती, संग दोस्तों की टोली होती
जब बच्चे स्कूल नहीं जाते हैं तो पैरेंट्स को काफी परेशानी होती है। घर के लोग कहते हैं कि आज स्कूल नहीं है। इसलिए बच्चे इतनी शरारत कर रहे हैं। यानि अगर स्कूल जैसी कोई व्यवस्था नहीं होती तो बच्चों की रोज़मर्रा की ज़िंदगी क्या होती? उनका समय कैसे बीतता, यह सवाल भी सामने आता है। इसका जवाब हो सकता है कि बच्चे घरेलू कामों को देखते। उनको जो पसंद आता करते। बड़ों की ज़िंदगी को ग़ौर से देखते-समझते। अपने सामाजिक अनुभवों की दुनिया को संपन्न बनाते। ऐसे में वे निरा सैद्धांतिक जीव नहीं होते। उनकी बातों में अनुभव का पुट होता। वे रियल टाइम रिस्पांस करने वाले बच्चे होते। वे स्कूल जाने वाले मासूम बच्चों से बिल्कुल अलग और आत्मविश्वास से लबरेज होते।
हो सकता है बच्चे बड़ों के पीछे-पीछे उनके साथ खेत, कारखाने, कंपनी और काम की जगहों पर जाते। या बड़े उनको कोई काम देकर उलझाकर रखते कि दोपहर या शाम तक इस काम को पूरा कर लेना। जैसा की गर्मी की छुट्टियों में ज़्यादार स्कूल किया करते हैं कि छुट्टियों के दिनों की संख्या को ध्यान में रखते हुए ढेर सारा होमवर्क दे देते हैं ताकि बच्चों की पढ़ाई से एक रिश्ता बना रहे। छुट्टियों में भी बच्चे के भीतर स्कूल के होने का अहसास बना रहे। लेकिन अगर स्कूल नहीं होता तो शायद बहुत सारी चीज़ों के देखने, करने, सीखने का तरीका बिल्कुल अलग होता और शायद ज़्यादा व्यावहारिक भी। ऐसे में बहुत सारी चीज़ें लिखित रूप में स्थानांतरित न होकर अनुभवों के रूप में एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक स्थानांतरित होतीं।
सीखने वाले के प्रति सहज आदर का भाव होता
इसके अलावा भी तमाम संभावनाएं हैं कि अगर पाठशाला न होती तो कोई शिक्षक न होता और कोई छात्र न होता। सब अपने-अपने नाम से जाने जाते। जिससे जो सीखता उसके प्रति आदर का भाव रखता। चीज़ों को बेहतर तरीके से करने का रास्ता खोजने पर उसकी तारीफ होती। सबके बीच में एक अलग तरीके का संवाद होता, जो कक्षाओं में होने वाले संवाद से ज़्यादा सहज होता। आसानी से समझ में आने वाला होता। ऐसे में शायद लोगों के घुलने-मिलने को लेकर भी तमाम तरह के आग्रह और पूर्वाग्रह समाज में स्थापित हो गए होते कि बच्चों को ऐसा करना चाहिए, उनसे मिलना चाहिए, उनके पास कुछ सीखने के लिए जाना चाहिए, ऐसे लोगों से दूर रहना चाहिए।
अगर स्कूल नहीं होते तो दिनभर बच्चों को स्कूल में बैठना नहीं पड़ता। छुट्टी होने के बाद बच्चों को जिस खुशी का अहसास होता है, वह खुशी नहीं होती। कई सालों की पढ़ाई के दौरान ज़िंदगी का जो लुफ्त होता है, वे मजे नहीं होते। न कोई शिक्षक दिवस होता, न कोई जयंती होती। न ढेर सारी उबाऊ आदर्शवादी बातें होतीं। न परीक्षा होती और न ही नंबरों की रेस। नंबरों के आधार पर कोई बच्चा तेज़ या कमज़ोर नहीं माना जाता। ऐसे में बाकी कौशलों और व्यावहारिक सूझ-बूझ का ज्यादा महत्व होता। समाज की आवश्यकताओं के अनुसार और पारिवारिक परंपराओं के अनुरूप बच्चे अपने जीवन के अनुभवों को खास दिशा देते। बड़ों की ज़िंदगी पर भी इस बात का काफी फर्क पड़ता। सरकारों को इस बात का रोना नहीं, रोना पड़ता कि शिक्षा के लिए बजट कम है। ऐसे में बजट का बड़ा हिस्सा स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च किया जाता।
इस तरह की तमाम संभावनाएं हो सकती हैं। तो अपने हिस्से में आप भी सोचिए कि स्कूल नहीं होते तो क्या होता? क्या हमारे आसपास की दुनिया ऐसी होती या फिर काफी अलग होती।
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