Sunday 18 December 2016

शिक्षा मनोविज्ञान का अर्थ क्या है?

शिक्षा मनोविज्ञान का अर्थ क्या है?


thght1782_educationशिक्षा मनोविज्ञान दो शब्दों से मिलकर बना है, शिक्षा और मनोविज्ञान। मनोविज्ञान को मानसिक प्रक्रियाओं, अनुभवों और व्यवहार के वैज्ञानिक अध्ययन के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। वहीं शिक्षा को इंसान के व्यक्तित्व के सर्वांगीण (शारीरिक, संज्ञानात्मक, भावनात्मक और सामाजिक विकास) के रूप में परिभाषित किया जा सकता है।
इस अर्थ में शिक्षा मनोविज्ञान बच्चों व बड़ों के मनोविज्ञान को शिक्षा के संदर्भ में व्यावहारिक रूप से प्रयोग करने के लिए सैद्धांतिक ज़मीन मुहैया करवाता है जिसके आधार पर अधिगम, प्रेरणा, व्यक्तित्व विकास और बाल मनोविज्ञान के विभिन्न विषयों पर एक समग्र समझ का निर्माण करने की कोशिश होती है।

शिक्षा क्या है?

शिक्षा दार्शनिक, जॉन डिवी के विचार
जॉन डिवी का मानना था कि शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जो स्कूल छोड़ने के बाद भी काम आए।
शिक्षा शब्द संस्कृत के शिक्ष् धातु से बना है जिसका अर्थ है सीखना या सिखाना। यानि इस अर्थ में शिक्षा सीखने-सिखाने की प्रक्रिया है। शिक्षा के लिए विद्या शब्द का भी उपयोग किया जाता है जिसका अर्थ होता है जानना। एजुकेशन शब्द लैटिन भाषा के चार शब्दों से मिलकर बना है जिसका अर्थ है प्रशिक्षित करना, अन्दर से बाहर निकालना, पालन पोषण करना और आंतरिक से वाह्य की तरफ जाना।
अतः संक्षेप में कहा जा सकता है कि शिक्षा का अर्थ मनुष्य की आंतरिक शक्तियों को बाहर की तरफ आने के लिए प्रेरित करना। जॉन एडम्स के मुताबिक प्राचीन काल में शिक्षा शिक्षक केंद्रित थी। जिसके दो छोर थे, शिक्षक और शिक्षार्थी। बाद में जॉन डिवी ने शिक्षा को बालकेंद्रित बताते हुए इसके तीन केंद्रों का जिक्र किया। जो क्रमशः शिक्षक, शिक्षार्थी और पाठ्यक्रम हैं।

शिक्षा की विभिन्न परिभाषाएं

गीता से अनुसार, “सा विद्या विमुक्ते”। यानि विद्या वही है जो बंधनों से मुक्त करे।
टैगोर के अनुसार, “हमारी शिक्षा स्वार्थ पर आधारित, परीक्षा पास करने के संकीर्ण मक़सद से प्रेरित, यथाशीघ्र नौकरी पाने का जरिया बनकर रह गई है जो एक कठिन और विदेशी भाषा में साझा की जा रही है। इसके कारण हमें नियमों, परिभाषाओं, तथ्यों और विचारों को बचपन से रटना की दिशा में धकेल दिया है। यह न तो हमें वक़्त देती है और न ही प्रेरित करती है ताकि हम ठहरकर सोच सकें और सीखे हुए को आत्मसात कर सकें।”
महात्मा गांधी के अनुसार, ” सच्ची शिक्षा वह है जो बच्चों के आध्यात्मिक, बौद्धिक और शारीरिक पहलुओं को उभारती है और प्रेरित करती है। इस तरीके से हम सार के रूप में कह सकते हैं कि उनके मुताबिक़ शिक्षा का अर्थ सर्वांगीण विकासथा।”
स्वामी विवेकानन्द के अनुसार, “शिक्षा व्यक्ति में अंतर्निहित पूर्णता की अभिव्यक्ति है।”
अरस्तु के अनुसार, “शिक्षा मनुष्य की शक्तियों का विकास करती है, विशेष रूप से मानसिक शक्तियों का विकास करती है ताकि वह परम सत्य, शिव एवम सुंदर का चिंतन करने योग्य बन सके।”

शिक्षा मनोविज्ञान क्या है?

कृष्णमूर्ति का शिक्षा दर्शन, जे कृष्णमूर्ति के विचारशिक्षा मनोविज्ञान, मनोविज्ञान की एक व्यावहारिक शाखा है। मनोविज्ञान के सिद्धांतों का शिक्षण प्रक्रिया में इस्तेमाल करना और शैक्षिक समस्याओं के समाधान में प्रयोग करना शिक्षा मनोविज्ञान के दायरे को परिभाषित करता है।
यानि शिक्षा मनोविज्ञान का संबंध मनोविज्ञान के सिद्धांतों और शिक्षा के सिद्धांतों व समस्याओं दोनों से है। मनोविज्ञान व्यवहार का वैज्ञानिक अध्ययन करता है, जबकि शिक्षा में व्यवहार के परिमार्जन व सामाजिकरण के ऊपर ध्यान केंद्रित किया जाता है।

शिक्षा मनोविज्ञान की परिभाषाएं

क्रो एण्ड क्रो, “शिक्षा मनोविज्ञान व्यक्ति के जन्म से वृद्धावस्था तक सीखने के अनुभवों का वर्णन और व्याख्या करता है।”
कॉलसनिक के अनुसार, “मनोविज्ञान के सिद्धांतों का उपयोग शिक्षा के क्षेत्र में करना शिक्षा मनोविज्ञान कहलाता है।”
स्कीनर के मुताबिक, “शैक्षणिक परिस्थितियों में मानव व्यवहार का वैज्ञानिक अध्ययन शिक्षा मनोविज्ञान कहलाता है।”
जेम्स ड्रेवर के अनुसार, “शिक्षा मनोविज्ञान, मनोविज्ञान की वह शाखा है जो शिक्षा में मनोवैज्ञानिक सिद्धांतों तथा खोजों के प्रयोग के साथ ही शिक्षा की समस्याओं के मनोवैज्ञानिक अध्ययन से संबंधित है।”
शिक्षा मनोविज्ञान के अध्ययन का केंद्र शैक्षणिक परिस्थितियों में मानव व्यवहार है। इस विज्ञान और कला दोनों श्रेणी में रखा जाता है। इसकी प्रकृति वैज्ञानिक है क्योंकि अध्ययन के लिए वैज्ञानिक विधियों का उपयोग किया जाता है।
Source:https://educationmirror.org/education-psychology-meaning-and-definition/

स्कूल लायब्रेरीः किताबों से बच्चों का काबिल-ए-तारीफ प्यार


स्कूल लायब्रेरीः किताबों से बच्चों का काबिल-ए-तारीफ प्यार


शिक्षण प्रक्रिया पर कुछ विचार...आज बच्चों की ख़ुशी नई किताबें देखकर अपने चरम पर थी। किताबों को हैरत से निहारती उनकी आंखो की चमक, चेहरे पर पल-पल बदलते भावों की मौजूदगी, किताब के रंगों, शीर्षक और तस्वीरों के आधार पर फटाफट किताबें चुनते हुए बच्चों को देखना अद्भुत था।
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विद्यालय के एक शिक्षक बच्चों को पुस्तकालय से किताबें दे रहे थे। किताबें देने के लिए एक तरीका अपनाया गया और बच्चों की कक्षा के अनुरूप किताबों को चुना गया। इसमें कक्षा के भाषा के स्तर और रुचि को देखते हुए कहानी, कविता के साथ-साथ रंग और तस्वीरों वाली किताबों का उचित समावेश किया गया।
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बच्चों की बाल सुलभ जिज्ञासा उनको किताबों की तरफ सहज आकर्षित कर लेती है। किताबों के साथ उनका संवाद देखने लायक होता है। वे किताबों से तेज़-तेज़ बोलते हुए बातें करते हुए दो-तीन किताबों की तुलना करते हैं और आख़िर में एक किताब पसंद करके कक्षा के अध्यापक के सामने रख देते हैं कि मुझे तो यही किताब पसंद है। इसके बाद जब किताब उनके नाम से जारी होकर उनके हाथ में आ गई तो वे ख़ुशी से झूमते हुए बाकी सारे बच्चों को अपनी इस उपलब्धि के बार में बताते हैं कि देखो मुझे ये किताब मिली है। तुम्हें कौन सी किताब मिली?
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कक्षा आठवीं के 27 बच्चे। एक बार कहानी और कविताओं की किताब पढ़ने के बाद उनको वापस जमा करवा चुके हैं। दोबारा किताबें पढ़ने का उत्साह किताबों के प्रति उनके प्यार और लगाव की एक अलग कहानी कहता है। यह दृश्य बताता है कि अगर बच्चों को ख़ुद से कोशिश करने के लिए प्रेरित किया जाए तो वे किसी भी काम को ज़्यादा जिम्मेदारी और तल्लीनता के साथ करते हैं। इसी तरीके से किताबें पढ़ने का काम एकाग्रता और रुचि की माँग करता है। अगर बच्चे ख़ुद से किताबों का चयन करते हैं तो उसको पढ़ते भी हैं। यह जानकारी बच्चों से होने वाली बातचीत के बाद मिली। कुछ बच्चों ने पिछली बार इश्यू कराई गई किताब की कहानी के बारे में भी बताया और यह भी बताया कि उस किताब में उनको सबसे ज़्यादा क्या पसंद आया?
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आगे के चार दिन स्कूल बंद रहने वाले थे। इसलिए आज बच्चों को उनकी एक बार फिर से मनपसंद किताबें चुनने का मौका दिया गया था ताकि उनको घर पर किताबें पढ़ने का पर्याप्त समय मिल जाएगा। जब बच्चों से कक्षा में पूछा गया कि कितने लोग घर पर किताबें पढ़ने के लिए ले जाना चाहते हैं? तो जवाब में सबकी तरफ़ से हाँ थी। जो बच्चे कह रहे थे कि हम सबको किताबें पढ़ने के लिए ले जानी हैं। मैंनें उनके कक्षा अध्यापक से बात की और उन्होंने भी कहा कि बच्चों को किताबें तो देनी ही चाहिए। किताबों की रैक से 30-35 किताबें छाँटी गईं और कक्षा में टेबल पर रखकर किताबें देने के लिए एक-एक छात्र-छात्रा को बुलाना शुरु किया।
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सभी छात्रों को टेबल पर बिखरी किताबों के बीच से अपने-अपने पसंद की किताबें छांटने की पूरी छूट थी। उन्होनें अपने पसंद की किताबें उठाईं। उस दौरान वे तस्वीरों, रंगों, किताब के शीर्षक और नाम के प्रति अपनी पसंद-नापसंद जाहिर कर रहे थे। कुछ नामों के प्रति उनका आकर्षण उनके चेहरों के भावों में सहज ही दिखाई पड़ रहा था..जैसे दोस्ती, मैं सबसे खूबसूरत हूं, रंग बिरंगे झंडे इत्यादि। एक-एक करके लगभग सारे बच्चों नें विना शिकायत के मनपसंद किताबें लीं। उसको अपने सहपाठियों के साथ साझा किया। अपनी पसंद पर ख़ुद की तारीफ भी कर रहे थे कि देखो मुझे कैसी किताब मिली है ? मैनें कैसी किताब पसंद की है? मुझे तो सबसे बेहतर किताब मिली है।
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ऐसी प्रतिक्रियाओं के बीच आखिर के पांच-एक बच्चे बचे रह गए। जिनका कहना था कि सारे लोग तो अच्छी किताबें लेते गए। अब वे बची-खुची किताब क्यों लें? इससे तो बेहतर है कि वे किताबें ही न लें। बच्चों के मन के भावनाओं को समझते हुए मैनें कहा कि मन छोटा करने की जरूरत नहीं है। अपने पुस्तकालय में किताबों की कमी भी नहीं है। आप पुस्तकालय की आलमारी से अपने पसंद की किताबें चुनकर लाइए और उन्हें नाम लिखवाकर लेते जाइए। किताबें लेने से मना करते-करते उन्होनें किताबें चुनना पसंद किया। पुस्तकालय की आलमारी से पसंद की किताबें छांटकर लाए और अपना नाम लिखवाकर किताब ले गए। इस पूरी प्रक्रिया को देखने के दौरान बच्चों की निर्णय प्रक्रिया, उनकी रुचि और संवेदनशीलता को समझने का मौका मिला। इसके साथ-साथ बच्चों के साथ बातें करने और उनकी नाराजगी दूर करने और उनको ख़ुशी के साथ किताबों से दोस्ती करते देखने का मौका भी मिला। बच्चों का किताबों का प्रति यह प्यार तो काबिल-ए-तारीफ़ है।
Source: https://educationmirror.org/2012/11/24/बच्चों-का-काबिल-ए-तारीफ-प्/

बच्चों को सही रास्ते पर लाने के लिए पीटना जरूरी है?

बच्चों को सही रास्ते पर लाने के लिए पीटना जरूरी है?

education-mirrorकुछ शिक्षक मानते हैं कि शिक्षा का अधिकार कानून आने से वे बच्चों को मारने-पीटने के हक से वंचित हो गए हैं। इस सोचे के पीछे मान्यता है कि बच्चों को धमका-डराकर ही सही रास्ते पर लाया जा सकता है।
वे कहते हैं, “इस कानून के आने से हमारे हाथ बंध गए हैं। अब हम बच्चों को ड़ांट-डपट नहीं सकते।” प्रधानाध्यापकों की सालाना वाकपीठ में बोलते हुए एक जिला शिक्षा अधिकारी कह रहे थे, “आरटीई आ गया तो क्या हुआ? बच्चों को अनुशासन में रखने के लिए और सही रास्ते पर ले जाने के लिए मारना-पीटना तो जरूरी है।”
इसी मानसिकता में बदलाव के लिए ही तो ‘भयमुक्त वातावरण’ के निर्माण की बात स्कूलों के संदर्भ में होती है। आज भी बहुत से शिक्षक स्कूलों में अपनी-अपनी कक्षाओं में डंडा लेकर घूमते दिखाई देते हैं। शायद वे कह रहे हैं कि जमाना बदले तो बदल जाए हम तो नहीं बदलने वाले हैं।

‘जब हमारे अध्यापक मारते थे’

जिला शिक्षा अधिकारी महोदय ने आगे अपने जीवन का उदाहरण देते हुए कहा, “जब हमारे अध्यापक मारते थे तो ‘नाक का नेटा’ नाक से बाहर आ जाता था। हमारे समय ऐसे पढ़ाई होती थी। हम आज जो कुछ भी हैं, उसी की बदौलत हैं।” उनकी बातों से एक बात लग रही थी कि बच्चों को शिक्षा देने का यही एक तरीका सबसे कारगर है। जिसमें पुरस्कार और दण्ड का प्रावधना हो।
बच्चों के सामाजीकरण का ऐसा क्रूर तरीका अपनाने की वकालत करना किसी भी नज़रिये से सही नहीं ठहराया जा सकता है। इस उदाहरण की बात इसलिए की जा रही है ताकि शिक्षा के क्षेत्र में मानसिकता में बदलाव का सवाल (How important is the Question of mindset change?) कितना महत्वपूर्ण है, इस तथ्य की तरफ शिक्षा के क्षेत्र में काम करने वाले लोगों और शिक्षकों का ध्यान आकर्षित किया जा सके।

नई पौध को उसी डंडे से क्यों हांकना चाहते हैं?

समय के साथ शिक्षण के तरीके में भी बदलाव आया है। बच्चों के बारे में हमारी समझ ज्यादा वैज्ञानिक हुई है। बच्चों के हर पहलू को लेकर शोध हो रहे हैं। हो सकता है कि पुराने समय में वैज्ञानिक शोधों व मनोवैज्ञानिक पहलुओं का जानकारी के अभाव में हम डर और दण्ड का सहारा लेते रहे हों, मगर नई पौध को आप उसी डंडे से क्यों हांकना चाहते हैं, जिससे आपको हांका गया था।
जब उनकी इस बात पर जब अध्यापकों में खुसुर-फुसुर होने लगी तो उन्होनें अपनी बातचीत का विषय बदल दिया। बातचीत का विषय बदलकर वे अध्यापकों की कमियां गिनाते हुए कहने लगे, “आप सब तो स्कूल के टाइम में सब्जी खरीदते नजर आते हो। देर से स्कूल आते हो। बच्चों के बाहर निकलने के पहले स्कूल से निकल जाते हो। दो अध्यापक हैं तो पारी फिक्स कर लेते हैं कि एक दिन मैं स्कूल आऊंगा, दूसरे दिन तुम आ जाना। स्कूलों में बने मिड-डे मील में मरे चूहे मिलते हैं। ऐसे कैसे काम चलेगा ? आपको सतर्क होना होगा।”
अभिभावकों के नज़रिये में भी बदलाव जरूरी है
आज भी अभिभावक शिक्षकों से कहते है, “बच्चों को पीटो तभी इनमें सुधार होगा।” मगर अब समय बदल रहा है कि बच्चों को मारने पर शिकायत लेकर अभिभावक स्कूल आते हैं। बच्चों को मारने वाले सवाल का जवाब देते हुए  एक शिक्षक प्रशिक्षक ने कहा, ” पहली बात स्कूल में अध्यापकों को पढ़ाने के पैसे मिलते हैं, मारने-पीटने के नहीं। दूसरी बात अगर आपको यह लगता है कि बच्चों को मार-पीटकर ही सुधारा जा सकता है तो आप यह काम घर पर भी कर सकते हैं।” इस बात से उनको लगा कि शायद मारकर सुधारने वाला आइडिया सही नहीं है।
शिक्षक प्रशिक्षक ने आगे कहा, “किसी को समझाने का पहला रास्ता बातचीत का होता है। पहले हम बच्चों पर भरोसा करना और उनको विश्वास में लेना तो सीखें। फिर उनको सुधारने की बात करें। बच्चों को पढ़ाने से पहले हमें कुछ सबक सीखने की जरूरत है। ताकि हम बच्चों को समझ पाएं और उनके साथ सलीके से पेश आ सकें।”
आखिर में, “किसी भी समाज को सफल लोगों से पहले अच्छे इंसान की जरूरत होती है। सफल लोगों के पीछे भागने वाला समाज अच्छे इंसानों को बढ़ावा देने के अपने मकसद से विमुख हो जाता है। वह केवल बुराई को रोकने के बारे में सोचता है।अच्छाई को बढ़ावा देने के बारे में खास प्रयत्न नहीं करता।” बच्चों को शिक्षा का अधिकार देने का मतलब यह भी है कि वह पूरे सम्मान के साथ शिक्षा ग्रहण करे। उसको बात-बात पर अपमानित, प्रताड़ित और उपेक्षित न किया जाय।
Source:https://educationmirror.org/2012/03/04/right-to-education-has-not-changed-the-mindset-of-education-officers/

अंतर्राष्ट्रीय साक्षरता दिवस क्यों मनाते हैं?

अंतर्राष्ट्रीय साक्षरता दिवस क्यों मनाते हैं?

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हर साल 8 सितंबर को विश्व साक्षरता दिवस के रूप में मनाया जाता है। इसका मकसद साक्षरता के प्रति जागरूकता पैदा करना है।
अंतर्राष्ट्रीय साक्षरता दिवस वैश्विक स्तर पर व्यक्तियों, समुदायों और विभिन्न समाजों के लिए साक्षरता के महत्व को रेखांकित करने के लिए मनाया जाता है। यूनेस्को की तरफ से इसकी शुरुआत 8 सितंबर का दिन चुना गया। यह निर्णय 17 नवंबर 1965 को किया था, इसलिए इस दिन का भी ऐतिहासिक महत्व है। हर साल यूनेस्को की तरफ से 8 सितंबर को वैश्विक साक्षरता की स्थिति को लेकर रिपोर्ट जारी की जाती है।
अंतर्राष्ट्रीय साक्षरता दिवस (इंटरनैशनल लिट्रेसी डे) का मुख्य समारोह यूनेस्को के मुख्यालय फ़्रांस की राजधानी पेरिस में मनाया जाएगा। इस साल की थीम्स हैं 21वीं सदी के लिए शिक्षा और संपूर्ण साक्षरता। यूनेस्को का मानना है कि शिक्षा सबके लिए एक मानवाधिकार है, जो पूरी ज़िंदगी काम आती है। इसकी उपलब्धता और गुणवत्ता दोनों का तालमेल होना चाहिए। यह संयुक्त राष्ट्र की इकलौती संस्था है जो शिक्षा के सभी आयामों पर नजर रखती है। 2030 के फ्रेमवर्क फॉर एक्शन को यूनेस्को अपना नेतृत्व दे रहा है।

ये कैसा ‘साक्षरता भारत’ है

भारत में साक्षर भारत मिशन के नाम से कार्यक्रम चलाया जा रहा है। इसका उद्देश्य साक्षर लोगों की संख्या में वृद्धि करना है। इसके लिए उम्र में बड़े यानि प्रौढ़ लोगों को साक्षरता का बेहद बुनियादी प्रशिक्षण देकर, परीक्षाओं में भाग लेने के लिए प्रेरित किया जाता है। इसमें पास होने वाली स्थिति में उनको साक्षर होने का प्रमाण पत्र दिया जाता है।
ज़मीनी स्तर पर ऐसे कार्यक्रम किस तरह संचालित हो रहे हैं? परीक्षाएं कैसे हो रही है? क्या परीक्षाओं में नकल होती है। क्या हस्ताक्षर करने वाली साक्षरता के बहाने साक्षरता के आँकड़ों को बढ़ाने मात्र के लिए ऐसे अभियान चलाए जा रहे हैं, ऐसे बहुत से सवाल हैं, जिनका जवाब ज़मीनी अनुभवों में बार-बार सामने आता है।
सिर्फ आँकड़ों के उद्देश्य वाली और हस्ताक्षर करने वाली साक्षरता लोगों के लिए बहुत ज्यादा काम की नहीं है। उनके लिए काला अक्षर भैंस बराबर वाली कहावत ही लागू होगी, क्योंकि ऐसी साक्षरता के अभियानों से वे केवल अपने नाम के काले अक्षरों को सफेद करना यानि पढ़ना (या सटीक शब्दों में डिकोड करना) सीख पाएंगे।

साक्षरता का अर्थ

a-child-writing-in-class-oneसाक्षरता का अर्थ केवल हस्ताक्षर कर पाने की योग्यता भर नहीं है। जैसा कि प्रौढ़ साक्षरता के विभिन्न कार्यक्रमों में जोर देकर बार-बार बताया जाता है। इन अभियानों के चलते ‘साक्षरता’ का मतलब काफी सीमित अर्थों में लिया जाता है। जबकि वास्तविक अर्थों में देखें तो साक्षरता का अर्थ है कि व्यक्ति किसी सामग्री को अपनी भाषा में पढ़कर समझ सके। उसका आनंद ले सके।
इसके साथ ही अपनी रोज़मर्रा की जरूरतों के लिए अपनी इस क्षमता का इस्तेमाल कर सके। साक्षरता की इसी कड़ी में ‘अर्ली लिट्रेसी’ या प्रारंभिक साक्षरता की अवधारणा आई। इसके बारे में बताते हुए प्रोफ़ेसर कृष्ण कुमार अपने एक लेख में कहते हैं, “अर्ली लिट्रेसी का अर्थ है कि बच्चों के स्वाभाविक विकास की प्रक्रिया में ही उसे पढ़ना-लिखना सिखाना जरूरी है क्योंकि पढ़ना एक बुनियादी कौशल है।

साक्षरता का महत्व

किसी भाषा में लिखी सामग्री को समझकर पढ़ने का कौशल जीवन के हर क्षेत्र में काम आता है। अगर किसी इंसान को पढ़ना नहीं आता है तो उसे किस तरह की मुश्किलों का सामना करना पड़ता है, इसका सहज अनुमान लगाया जा सकता है। उसे हर पढ़ा-लिखा आदमी आम शब्दावली में साहब नज़र आता है। साक्षरता या पढ़ने का कौशल एक आत्मविश्वास देता है, चीज़ों को समझने का एक जरिया।
किसी लिखी हुई सामग्री के बारे में सोचने और उसका विश्लेषण करने का। इसलिए साक्षरता को केवल अक्षरों तक सीमित नहीं करना चाहिए। केवल नाम लिख लेना भर पर्याप्त नहीं है। नाम लिखना-पढ़ना तो बच्चों को दो-तीन महीने में सिखाया जा सकता है, इससे वे अपना और दूसरे का नाम लिख-पढ़ लेंगे। मगर सिर्फ नाम में क्या रखा है, वाली बात सामने होगी। असली मुद्दा तो नाम से आगे जाने का है ताकि इंसान दुनिया में अपने अस्तित्व को सम्मान के साथ जी पाए।
Source:https://educationmirror.org/2016/09/07/why-international-literacy-day-is-celibrated-all-over-the-world/

कैसे करें जीवंत पुस्तकालय का निर्माण?

कैसे करें जीवंत पुस्तकालय का निर्माण?

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बाल साहित्यकार गुरुवचन सिंह जीने कहा नए सृजन के लिए जोखिम उठाने की जरूरत है।
अपनी बात की शुरुआत करते हुए बाल साहित्यकार गुरुवचन सिंह जी कहते हैं कि लायब्रेरी एजुकेटर का काम कोई हल्का-फुल्का काम नहीं है। इस काम को केवल आपने इसलिए भी नहीं सुना है क्योंकि आपको इस काम में मजा आता है। अच्छा लगने का विषय नहीं है। यह एक बड़ी सामाजिक जिम्मेदारी का विषय है कि आपको बच्चों और पाठकों के साथ कैसे संवाद स्थापित करना है।
अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए वे कहते हैं, “आमतौर पर शिक्षा क्षेत्र में बच्चों के साथ काम करने को बहुत हल्के में लिया जाता है। लोग कहते हैं कि हमें बच्चों को पढ़ाना अच्छा लगता है, इसलिए मैं बच्चों को पढ़ाना चाहता हूँ। क्या आप किसी ऐसे डॉक्टर से अपना इलाज कराएंगे, जिसको इलाज करने में बहुत मजा आता है। यह जिम्मेदारी आपसे ज्यादा प्रोफेशनल तरीके से अपने काम को करने की तैयारी माँगती है।”

जीवंत पुस्तकालय के मायने

जीवंत पुस्तकालय के विचार पर संवाद करते हुए वे कहते हैं, “जीवंत पुस्तकालय को आप कैसे देखते हैं? पाठक बनने का मतलब क्या है? पाठक बनने की प्रक्रिया क्या है? पढ़ना क्या है? सीखना क्या है? किताबों से दोस्ती का मतलब क्या है? दोस्ती का मतलब क्या है? आप किताबों के बारे में जाने, उनके अच्छे-बुरे पक्ष को जाने। पुस्तकालय अगर उबाऊ है तो सारी तैयारी का कोई मतलब नहीं है।”
“जीवंतता का लायब्रेरी एजुकेटर के साथ क्या रिश्ता है जो उसे जीवंत बनाती है। लायब्रेरी का समाज के साथ क्या रिश्ता है जो उसे जीवंत बनाती हैं। इन सारी बातों से आप रूबरू हुए। यानि एक ऐसा पुस्तकालय जहाँ बच्चों के रुचि की किताबें हैं। वहां ऐसी किताबें हैं जहां बच्चों को विभिन्न तरह की सामग्री मौजूद होती है और माहौल बच्चों के लिए अनुकूल होता है।”
अपनी बात को स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा, “शिक्षा की बात हो या लायब्रेरी की रूटीन चीज़ों के तीन आधार होते हैं। पहला तो है आदत, परंपरा और सत्ता से। जैसे परंपरा चली आ रही है कि लायब्रेरियन किताबों के लेन-देन काम बड़े यांत्रिक ढंग से पूरा करता है।  हमें ऐसी मान्यताओं को पहचानना है जो हमारी सामाजिक, सांस्कृतिक जड़ों में गहरी पैठी मान्यताएं हैं, हमें सबसे पहले उन पर सवाल खड़े करने हैं।”
“जैसे साहित्य की भाषा सरल होनी चाहिए। कहानी सरल होनी चाहिए बच्चों के लिए। सरल कहानी का क्या मतलब है? सरल कहानी का क्या अर्थ है। बग़ैर बच्चा बने, बच्चों को कहानी नहीं सुना सकते। अगर हम विचार की गहराई में उतरेंगे तो पता चलेगा कि कहानी सुनाने के लिए बच्चा बनने के लिए जरूरी नहीं है। कहानी सुनाने के लिए कहानी का सरल होना भी जरूरी नहीं है।”

मान्यताओं पर चर्चा करें

शिक्षा या पुस्तकालय के क्षेत्र में व्याप्त मान्यताओं से सजग रहने का सुझाव देते हुए वे कहते हैं, “कहानी सुनाने के बारे में लोगों की मान्यता है कि कोई भी कहानी सुनायी जा सकती है। ऐसी कहानियां सुनाना जिससे बच्चों को संदेश मिलते हों। एक और मान्यता है कि बच्चों को रंगीन चित्रों वाली किताबें बहुत पसंद है। बहुत सी किताबें ऐसी हैं जिनके चित्र स्वेत-श्याम हैं मगर वे बच्चों को काफी पसंद है।
ऐसी गहरी मान्यताओं को समझने और पहचानने की जरूरत है ताकि हम उनको पोषित करने वाली जड़ों को रेखांकित कर सकें और उसमें बदलाव कर सकें। यह एक रिफलेक्टिव प्रेक्टिशनर या चिंतनशील और विचारशील लायब्रेरी एजुकेटर बनने का तरीका है। यह एक पूरी यात्रा है। जिसमें आप सतत आगे बढ़ते रहते हैं। किसी को विचारशील बनाने का रेडीमेड तरीका नहीं है।”

जोखिम लेना है जरूरी

नए सृजन के लिए जोखिम जरूरी है। इस बात को रेखांकित करते हुए उन्होंने कहा, “जब आप दस किताबें पढ़ेंगे तो तीन किताबें ऐसी छांट पाएंगे जो अनुमान लगाने के कौशल पर काम करने के लिए काफी उपयोगी हैं। अनुमान लगाने का कौशल पढ़ने की कुंजी है। किसी कक्षा में बच्चों के साथ कहानी सुनाने वाली गतिविधि के दौरान देखें कि क्या सारे बच्चों की भागीदारी हो रही है। अगर किसी गतिविधि को कर रहे हैं।”
“अगर आप एक बार असफल होते हैं तो घबराने की जरूरत नहीं है। दूसरा प्रयास करें। तीसरा प्रयास करें। अपनी असफलताओं से सीख लें और आगे बढ़ें। पढ़ी-पढ़ाई गतिविधियों को करने के साथ अपने ज्ञान, समझ और अनुभवों से नई गतिविधियों का भी सृजन करें। जो भी आपने जाना-समझा है, उससे आगे बढ़ने की कोशिश जारी रखें। आपने जो अपने अनुभवों से सीखा है वो कभी डिलीट नहीं होता है। लगातार खुद को सामाजिक रूप से जागरूक रख पाना भी बेहद जरूरी है।”

बाल साहित्य का झगड़ा पाठ्यपुस्तकों से है

बाल साहित्य और पाठ्यपुस्तकों के द्वंद को सामने रखते हुए उन्होंने कहा, “चूंकि जिस प्रक्रिया में हम शामिल हैं वह बच्चों के अस्तित्व और अस्मिता के निर्माण की प्रक्रिया है। बाल साहित्य का सबसे बड़ा झगड़ा और द्वंद बाल साहित्य के साथ है। पाठ्यपुस्तक होने से कोई चीज़ खराब नहीं हो जाती है। जैसे लोग कहते हैं कि अच्छा बाल साहित्य वो है जो पाठ्यपुस्तक नहीं है। पाठ्यपुस्तक होने से कोई चीज़ क्यों खराब हो जाती है, इसको समझने की जरूरत है। पाठ्यपुस्तकों का विषयों में बंटना और ज्ञान को विषयों में बांटकर देखने की जो व्यवस्था है। इस बंटाव में तारतम्य का अभाव दिखायी देता है। महत्वपूर्ण बात ये है कि बतौर लायब्रेरी एजुकेटर हमारे सामने चुनौतियों क्या हैं, इसे समझने की जरूरत है।”

पढ़ने के संकट का समाधान क्या है?

अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए गुरुवचन सिंह जी ने कहा, “एनसीएफ-2005 कहता है, “आज जब पूरे देश में सूचना के भार से दबे बच्चों की पुकार सुनी जा रही है और पाठ सहगामी क्रियाओं को शिक्षा की धारा में लाने की कोशिशें लगातार चल रही हैं देश में बाल साहित्य की भूमिका बहुत ज्यादा बढ़ जाती है।” यशपाल कमेटी ने काफी पहले कह दिया था कि बच्चों को सूचनाओं के भार से बचाने के लिए लायब्रेरी और बाल साहित्य को महत्व देने की जरूरत है।
बाल साहित्य की शैक्षिक भूमिका को समसामयिक संदर्भों में समझने की जरूरत है। वर्तमान में शिक्षा क्षेत्र के दो बड़े संकट हैं, जिसने बाल साहित्य की भूमिका को और बढ़ा दिया है। पहला है पढ़ने का संकट और दूसरा ज्ञान के दबाव का संकट। बच्चे को स्वतंत्र पाठक, समर्थ पाठक या समालोचक पाठक बनाने की यात्रा बाल साहित्य की पटरियों से होकर गुजरती है। भाषा शिक्षण की पारंपरिक और रूढ़ विधियों में भी बदलाव की जरूरत है।”
(उपरोक्त विचार बाल साहित्यकार गुरूवचन सिंह जी ने सिरोही में लायब्रेरी एजुकेटर्स से संवाद करते हुए कहीं।)
Source:https://educationmirror.org/2016/12/02/what-is-the-role-of-library-educator-in-india/

बहुभाषिकता समस्या नहीं, एक समाधान है

बहुभाषिकता समस्या नहीं, एक समाधान है

भारत में बहुभाषिकता को एक संसाधन के रूप में देखने की बजाय एक समस्या की तरह देखा जाता है। इसके लिए हम उन स्कूलों का उदाहरण ले सकते हैं जहां क्लासरूम में एक बच्चे को अपनी मातृभाषा का इस्तेमाल करने से रोका जाता है।

शिक्षा जीवन भर चलती रहती है।
शिक्षा जीवन भर चलती रहती है।
भाषा के कालांश में बहुभाषिकता को एक समस्या के रूप में देखा जाता है। ऐसा माना जाता है कि कक्षा में अलग-अलग भाषाओं के इस्तेमाल से बच्चों को उलझन होती है। जबकि स्थिति इसके ठीक विपरीत होती है।
कक्षा में बहुभाषी माहौल के कारण हर बच्चा अपनी बात रखने में सहज महसूस करता है। ऐसा माहौल सभी बच्चों को दूसरे की भाषा और विचारों का सम्मान करना सिखाती है।

हम सब मूलतः बहुभाषी हैं

उदाहरण के तौर पर अगर किसी बच्चे के घर में अवधी या भोजपुरी या फिर कोई आदिवासी भाषा मसलन गरासिया, बागड़ी इत्यादि बोली जाती है तो बच्चा अपनी बात अपने घर की भाषा (होम लैंग्वेज) में बड़ी आसानी से कह पायेगी। उसे अपनी बात कहने के लिए शब्दों की तलाश नहीं करनी पड़ेगी क्योंकि उसके पास अपनी बात को अभिव्यक्ति करने के लिए पर्याप्त शब्द भंडार पहले से होता है।
एक भाषा वैज्ञानिक ने बातचीत के दौरान बताया कि हम सभी मूलतः बहुभाषी हैं। किसी एक भाषा से हमारा काम चल ही नहीं सकता है। हम स्कूल में एक भाषा बोलते हैं, घर पर दूसरी भाषा बोलते हैं, दोस्तों के साथ किसी अन्य भाषा में संवाद करते हैं। इसके अतिरिक्त बहुत सी अन्य भाषाओं में हम बोलते कम हैं। मगर उसमें लिखने-पढ़ने का काम करते हैं जैसे अंग्रेजी। बहुत से हिंदी-भाषी राज्यों में अंग्रेजी में संवाद करने की जरूरत आमतौर पर नहीं पड़ती। मगर वहां के लोग अंग्रेजी के अखबार, पत्रिकाएं, उपन्यास और कहानियां इत्यादि पढ़ते हैं।

एक समाधान है बहुभाषिकता

उपरोक्त नजरिये से देखें तो हम कह सकते हैं कि बहुभाषिकता एक समाधान है। इससे हम किसी मुद्दे पर अलग-अलग दृष्टिकोण से विचार कर पाते हैं। एक ऐसे समाधान तक पहुंचने का प्रयास कर पाते हैं जो अन्य लोगों के प्रति भी समान रूप से संवेदनशील होता है। किसी एक भाषा को सभी लोगों के ऊपर थोपने की कोशिशों का इसी कारण से विरोध होता है क्योंकि जो भाषा किसी के लिए आसान होती है। वही अन्य लोगों के लिए मुश्किल हो सकती है, यह एक छोटी सी बात है। मगर हम इसे समझने की कोशिश नहीं करते।
बहुत से स्कूलों में बच्चों के हिंदी बोलने पर पैरेंट्स से शिकायत की जाती है। फाइन लगाया जाता है। इसी तरीके से अन्य भाषाओं के साथ भी भेदभाव होता है। जिसका व्यावहारिक समाधान तलाशने की दिशा में प्रयास होना चाहिए। बहुभाषिकता इस समस्या का एक समाधान है। क्योंकि भाषा का मकसद केवल सामने वाली की जरूरत के अनुसार खुद को ढालना नहीं है। भाषा अपने अनुभवों पर विचार करने, भविष्य के फैसले लेने और लोगों से विचार-विमर्श करने का एक सशक्त जरिया है। बहुभाषिकता इस प्रक्रिया को ज्यादा सुगम और विविध बनाती है। इसे एक व्यापकता देती है जो बाकी लोगों को भी संवाद की प्रक्रिया में भागीदार बनाने की हिमायत करती है, उनका विरोध नहीं करती।
Source:https://educationmirror.org/2016/04/18/benefits-of-multilingualism-in-education/

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