बच्चों को सही रास्ते पर लाने के लिए पीटना जरूरी है?
कुछ शिक्षक मानते हैं कि शिक्षा का अधिकार कानून आने से वे बच्चों को मारने-पीटने के हक से वंचित हो गए हैं। इस सोचे के पीछे मान्यता है कि बच्चों को धमका-डराकर ही सही रास्ते पर लाया जा सकता है।
वे कहते हैं, “इस कानून के आने से हमारे हाथ बंध गए हैं। अब हम बच्चों को ड़ांट-डपट नहीं सकते।” प्रधानाध्यापकों की सालाना वाकपीठ में बोलते हुए एक जिला शिक्षा अधिकारी कह रहे थे, “आरटीई आ गया तो क्या हुआ? बच्चों को अनुशासन में रखने के लिए और सही रास्ते पर ले जाने के लिए मारना-पीटना तो जरूरी है।”
इसी मानसिकता में बदलाव के लिए ही तो ‘भयमुक्त वातावरण’ के निर्माण की बात स्कूलों के संदर्भ में होती है। आज भी बहुत से शिक्षक स्कूलों में अपनी-अपनी कक्षाओं में डंडा लेकर घूमते दिखाई देते हैं। शायद वे कह रहे हैं कि जमाना बदले तो बदल जाए हम तो नहीं बदलने वाले हैं।
‘जब हमारे अध्यापक मारते थे’
जिला शिक्षा अधिकारी महोदय ने आगे अपने जीवन का उदाहरण देते हुए कहा, “जब हमारे अध्यापक मारते थे तो ‘नाक का नेटा’ नाक से बाहर आ जाता था। हमारे समय ऐसे पढ़ाई होती थी। हम आज जो कुछ भी हैं, उसी की बदौलत हैं।” उनकी बातों से एक बात लग रही थी कि बच्चों को शिक्षा देने का यही एक तरीका सबसे कारगर है। जिसमें पुरस्कार और दण्ड का प्रावधना हो।
बच्चों के सामाजीकरण का ऐसा क्रूर तरीका अपनाने की वकालत करना किसी भी नज़रिये से सही नहीं ठहराया जा सकता है। इस उदाहरण की बात इसलिए की जा रही है ताकि शिक्षा के क्षेत्र में मानसिकता में बदलाव का सवाल (How important is the Question of mindset change?) कितना महत्वपूर्ण है, इस तथ्य की तरफ शिक्षा के क्षेत्र में काम करने वाले लोगों और शिक्षकों का ध्यान आकर्षित किया जा सके।
नई पौध को उसी डंडे से क्यों हांकना चाहते हैं?
समय के साथ शिक्षण के तरीके में भी बदलाव आया है। बच्चों के बारे में हमारी समझ ज्यादा वैज्ञानिक हुई है। बच्चों के हर पहलू को लेकर शोध हो रहे हैं। हो सकता है कि पुराने समय में वैज्ञानिक शोधों व मनोवैज्ञानिक पहलुओं का जानकारी के अभाव में हम डर और दण्ड का सहारा लेते रहे हों, मगर नई पौध को आप उसी डंडे से क्यों हांकना चाहते हैं, जिससे आपको हांका गया था।
जब उनकी इस बात पर जब अध्यापकों में खुसुर-फुसुर होने लगी तो उन्होनें अपनी बातचीत का विषय बदल दिया। बातचीत का विषय बदलकर वे अध्यापकों की कमियां गिनाते हुए कहने लगे, “आप सब तो स्कूल के टाइम में सब्जी खरीदते नजर आते हो। देर से स्कूल आते हो। बच्चों के बाहर निकलने के पहले स्कूल से निकल जाते हो। दो अध्यापक हैं तो पारी फिक्स कर लेते हैं कि एक दिन मैं स्कूल आऊंगा, दूसरे दिन तुम आ जाना। स्कूलों में बने मिड-डे मील में मरे चूहे मिलते हैं। ऐसे कैसे काम चलेगा ? आपको सतर्क होना होगा।”
अभिभावकों के नज़रिये में भी बदलाव जरूरी है
आज भी अभिभावक शिक्षकों से कहते है, “बच्चों को पीटो तभी इनमें सुधार होगा।” मगर अब समय बदल रहा है कि बच्चों को मारने पर शिकायत लेकर अभिभावक स्कूल आते हैं। बच्चों को मारने वाले सवाल का जवाब देते हुए एक शिक्षक प्रशिक्षक ने कहा, ” पहली बात स्कूल में अध्यापकों को पढ़ाने के पैसे मिलते हैं, मारने-पीटने के नहीं। दूसरी बात अगर आपको यह लगता है कि बच्चों को मार-पीटकर ही सुधारा जा सकता है तो आप यह काम घर पर भी कर सकते हैं।” इस बात से उनको लगा कि शायद मारकर सुधारने वाला आइडिया सही नहीं है।
शिक्षक प्रशिक्षक ने आगे कहा, “किसी को समझाने का पहला रास्ता बातचीत का होता है। पहले हम बच्चों पर भरोसा करना और उनको विश्वास में लेना तो सीखें। फिर उनको सुधारने की बात करें। बच्चों को पढ़ाने से पहले हमें कुछ सबक सीखने की जरूरत है। ताकि हम बच्चों को समझ पाएं और उनके साथ सलीके से पेश आ सकें।”
आखिर में, “किसी भी समाज को सफल लोगों से पहले अच्छे इंसान की जरूरत होती है। सफल लोगों के पीछे भागने वाला समाज अच्छे इंसानों को बढ़ावा देने के अपने मकसद से विमुख हो जाता है। वह केवल बुराई को रोकने के बारे में सोचता है।अच्छाई को बढ़ावा देने के बारे में खास प्रयत्न नहीं करता।” बच्चों को शिक्षा का अधिकार देने का मतलब यह भी है कि वह पूरे सम्मान के साथ शिक्षा ग्रहण करे। उसको बात-बात पर अपमानित, प्रताड़ित और उपेक्षित न किया जाय।
Source:https://educationmirror.org/2012/03/04/right-to-education-has-not-changed-the-mindset-of-education-officers/
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